लेखनी कहानी -16-Nov-2022 व्याघ्री-कथा
*व्याघ्री-कथा*
कुलीन वंश में पैदा हो कर एक बार एक पंडित संसार से वितृष्ण हो संन्यासी का जीवन-यापन करने लगा। उसके आध्यात्मिक विकास और संवाद से प्रभावित हो कुछ ही दिनों में अनेक सन्यासी उसके अनुयायी हो गये।
एक दिन अपने प्रिय शिष्य अजित के साथ जब वह एक वन में घूम रहा था तब उसकी दृष्टि वन के एक खड्ड पर पड़ी जहाँ भूख से तड़पती एक व्याघ्री अपने ही नन्हे-नन्हे बच्चों को खाने का उपक्रम कर रही थी। गुरु की करुणा व्याघ्री और उसके बच्चों के लिए उमड़ पड़ी। उसने अजित को पास की बस्ती से व्याघ्री और उसके बच्चों के लिए कुछ भोजन लाने के लिए भेज दिया। फिर जैसे ही अजित उसकी दृष्टि से ओझल हुआ वह तत्काल खाई में कूद पड़ा और स्वयं को व्याघ्री के समक्ष प्रस्तुत कर दिया। भूखी व्याघ्री उसपर टूट पड़ी और क्षण भर में उसके चीथड़े उड़ा दिये।
अजित जब लौटकर उसी स्थान पर आया उसने गुरु को वहाँ न पाया। तो जब उसने चारों तरफ नज़रें घुमाईं तो उसकी दृष्टि खाई में बाघिन और उसके बच्चों पर पड़ी। वे खूब प्रसन्न हो किलकारियाँ भरते दीख रहे थे। किन्तु उनसे थोड़ी दूर पर खून में सने कुछ कपड़ों के चीथड़े बिखरे पड़े थे जो निस्सन्देह उसके गुरु के थे। गुरु ने व्याघ्री के नन्हे बच्चों की जान बचाने के लिए अपने प्राणों की बलि चढ़ा दी थी ! गुरु की करुणा और त्याग से उसका शीश श्रद्धा से झुक गया।
विनीलक-कथा
एक बार एक स्वर्णिम राज-हंस मिथिला में रुका, जहाँ उसने एक कौवी के साथ सहवास किया जिससे काले मेघ के समान एक कौवा पैदा हुआ जिसका नाम उसके वर्ण और छवि के अनुकूल विनीलक रखा गया। कुछ ही दिनों में हंस और कौवी अलग-अलग हो गये और हंस फिर से हिमालय के निकटवर्ती एक सरोवर में वास करने लगा। वहाँ उसने एक सुंदर हंसी के साथ विवाह कर एक नया घर-संसार बसाया। हंसी ने दो सुन्दर सफेद हंसों को जन्म दिया।
हंस-पुत्र जब बड़े हो गये और उन्हें विनीलक के अस्तित्व का ज्ञान हुआ तो पिता की आज्ञा ले, वे विनीलक से मिलने मिथिला जा पहुँचे। गंदे कूड़े के ढेर पर रहते विनीलक को उन्होंने अपने साथ पिता के पास हिमालय चलने का निमंत्रण दिया। विनीलक ने उनका निमंत्रण सहर्ष स्वीकार कर लिया। तब दोनों ही हंसों ने एक लकड़ी के दोनों छोरों से पकड़ विनीलक को उस पर सवार होने का आग्रह किया। जब विनीलक ने वैसा किया तो उन्होंने हिमालय की तरफ उड़ना आरम्भ कर दिया। मार्ग में उन्हें मिथिला के राजा विदेह की सवारी दिखाई पड़ी जिसे चार सफेद घोड़े खींच रहे थे। राजा की सवारी देख विनीलक चिल्ला उठा "देख! राजा की सवारी उसके सफेद घोड़े ज़मीन पर खींच रहे हैं किन्तु मेरी सवारी तो सफेद अनुचर आसमान पर! दोनों हंसों को कौवे की अपमान-जनक वाणी से क्रोध तो बहुत आया मगर पिता की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए उन्होंने उसे नीचे नहीं गिराया और हिमालय में लाकर पिता के सामने रख दिया। फिर उन्होंने विनीलक के अपशब्दों से भी पिता को अवगत कराया। विनीलक के गुणों को सुन पिता ने अपने दोनों पुत्रों को फिर से विलीलक को मिथिला छोड़ आने को कहा क्योंकि वह हिमालय पर रहने योग्य नहीं था। तब हंसों ने उसे उठाकर फिर मिथिला पहुँचा आये जहाँ वह मलों के ढेर में अपना वास बना काँव-काँव करता हुआ रहने लगा।